November 5, 2009

Mithya

(A poem I wrote very long back, but the poem which i still truly believe in)

मिथ्या

क्या है जीवन, क्या है लक्ष्य,
क्या है इस जीवन का लक्ष्य,
क्या है इन श्वासों का मतलब,
क्या वह जीवन व्याख्या है?

अजब है अचरज, अजब अचंभा,
इस दुनिया का गोरखधंधा,
जिस आयाम में रहता है,
अनभिज्ञ उसी से रहता है,
जिस नौका में बहता है,
नही जानता वह क्या है।

जीबन क्या है नही जानता,
जीना क्या है नही जानता,
जीवन जीना आखिर क्या है,
पूरा जीवन नही जानता।

सत्य की खोज में जाता है,
दिग्भ्रम हर क्षण पाता है,
हर्षित, पूलकित, मुर्छित, चिंतित,
हर भाव विकल कर जाता है।

सोता है उठ जाता है,
उठकर फिर सो जाता है,
हर सुर्य अस्त हो जाता है,
हर पूष्प इक दिन मुरझाता है,
मानव जन्म जो पाता है,
हर ऍक क्रिया दोहराता है।

सोमवार से रविवार तक,
रविवार से शनिवार तक,
वर्ष के बारह मास में रहता,
जीवन के हर वर्ष को सहता,
क्षण क्षण करके दिन है बनता,
दिन दिन वर्ष बन जाता है।

ना यह है विधि का विधान,
ना कोई ईश्वर आज्ञा है,
मां की गोद से चिता की अग्नि,
यही बस जीवन व्याख्या है।

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